कांग्रेस कार्यसमिति में खोदा पहाड़ निकली….
नई दिल्ली। ( मनोज वर्मा ) कांग्रेस का अगला अध्यक्ष कौन हो या कांग्रेस कार्यसमिति में तय नहीं हो पाया। यह बात अलग है कि कांग्रेस कार्यसमिति में कांग्रेस के शीर्ष नेेताओं के बीच जिस तरह का घमासान हुआ उसने विरोधियों को कांग्रेस पार्टी पर मजा लेने का मौका जरूर दे दिया है इसलिए कांग्रेस को लेकर एक नहीं कई कहावतें सुनाई जा रही है। मसलन किसी को लगता है कांग्रेस कार्यसमिति में खोदा पहाड़ निकली….और खाया पिया कुछ नहीं, गिलास फोड़ा बारह आना। मसलन यदि सोनिया गांधी को ही कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष बनाए रखना था तो नेतृत्व को लेकर कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने इतना बखेड़ा खड़ा क्यों किया। कार्यसमिति के सामने कोरोना सहित देश की कई समस्याओं से संबंधित मुदृे थे जिन पर चर्चा होनी चाहिए थी और सरकार से भी विपक्षी पार्टी के नाते मुखर होकर सवाल पूछे जा सकते थे पर कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने एक दूसरे पर ही भाजपा से मिलीभगत के आरोप लगा कर अपनी सार्वजनिक रूप से फजीहत करवाने का काम किया। कांग्रेस का आंतरिक घमासान मुखर होकर जनता के सामने आ गया।
दरअसल कांग्रेस में कई दिनों से उथल-पुथल चल रही थी।पार्टी की कार्यसमिति की बैठक में भी हंगामा देखने को मिला लेकिन अंत में फैसला ये हुआ कि फिलहाल सोनिया गांधी ही कांग्रेस की अध्यक्ष बनी रहेंगी।बैठक से पहले कुछ कांग्रेसी नेताओं ने सोनिया को चिट्ठी लिखकर पार्टी में बदलाव की मांग उठाई थी। बैठक के बाद हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में कांग्रेस ने ऐसे नेताओं की तरफ इशारा करते हुए कहा कि मीडिया और सार्वजनिक तौर पर मुद्दे उठाने की बजाय पार्टी फोरम का इस्तेमाल किया जाए। हालांकि, बैठक के बाद कोई हड़कंप मचाने वाली खबर सामने नहीं आई। सोनिया गांधी को जो चिट्टी लिखी गई थी, उसे एक तरह से साइडलाइन कर दिया गया। करीब सात घंटे की बैठक के बाद ये सामने आया कि सोनिया गांधी के इस्तीफे की पेशकश को खारिज करते हुए उनसे छह महीने और अंतरिम अध्यक्ष बने रहने का निवेदन किया गया। सोनिया गांधी को लिखी गई चिट्ठी पर गुलाम नबी आजाद, मुकुल वासनिक जैसे कद्दावर कांग्रेसी नेताओं के साइन थे। चिट्ठी लिखने वाले कई नेता कार्यसमिति के सदस्य भी हैं तो ऐसे में आशंका थी कि बैठक में भारी उठापटक देखने को मिल सकती है लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। पार्टी ने इसे मैनेज कर लिया था और वो भी एक दिन पहले ही। 23 अगस्त को राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल जैसे नेताओं ने गांधी परिवार के समर्थन में ट्वीट किया था। पंजाब के सीएम अमरिंदर सिंह ने कह दिया था कि ये इन मुद्दों का समय नहीं है। कुछ नेताओं ने राहुल गांधी से पार्टी की कमान दोबारा संभालने की अपील की।
अब ये सवाल उठ रहा है कि सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने वालों ने कोई और नतीजे की उम्मीद क्यों की थी? क्योंकि चिट्ठी लिखने वाले समूह में वो लोग शामिल हैं, जो असंतुष्टों को निकालने का अच्छा अनुभव रखते हैं। सीताराम केसरी को कांग्रेस अध्यक्ष के पद से हटाने की योजना को लागू करने वालों में गुलाम नबी आजाद और मुकुल वासनिक शामिल रहे हैं। इन नेताओं को ये इल्म था कि वफादारी की कसमें खिलाकर हमें आउट कर दिया जाएगा लेकिन फिर भी इन्होंने अपनी बात रखी क्योंकि शायद इन्हें ऐसा लग रहा है कि पार्टी इनके साथ खराब व्यवहार कर रही है। क्या पहली बार कांग्रेस में कलह हो रही है? नहीं। ऐसा नहीं है। कांग्रेस में कलह, विरोध और टूट-फूट होती रही है। लेकिन इस बार पार्टी 6 साल से केंद्र की सत्ता से बाहर है। इससे पहले कांग्रेस 1996 से 2004 तक सत्ता से बाहर रही थी। इससे पहले कभी भी पार्टी केंद्र की राजनीति से इतने समय तक बाहर नहीं रही है। फिर चाहे 1989 से 1991 की अवधि हो या 1977 से 1980 तक की अवधि। 1999 में बनी अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार देश की ऐसी पहली गैर-कांग्रेसी सरकार थी जिसने पांच साल पूरे किए। बात 1969 की हो या 1977 की, इंदिरा गांधी ने पार्टी में बगावत की थी। 1969 में इंदिरा ने राष्ट्रपति पद के निर्दलीय उम्मीदवार वीवी गिरी को जिताने के लिए पार्टी के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को हरवाया था। तब इंदिरा गांधी को पार्टी से निकाला गया था। 1977 में भी जब इमरजेंसी के बाद पार्टी हारी तब के ब्रह्मानंद रेड्डी और वायबी चव्हाण ने इंदिरा के खिलाफ आक्रोश व्यक्त किया था। तब भी पार्टी टूटी और वजह इंदिरा ही बनी थी। 1987 में राजीव गांधी सरकार में वित्त मंत्री और बाद में रक्षा मंत्री रहे वीपी सिंह ने ही बगावत की झंडाबरदारी की। जन मोर्चा बनाया और अन्य पार्टियों के साथ मिलकर 1989 में सरकार भी बनाई थी।
1990 के दशक में एनडी तिवारी और अर्जुन सिंह ने बगावत की थी, लेकिन तब उनके निशाने पर प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव थे। उन्होंने अलग पार्टी बना ली थी। क्या पार्टी में पहली बार सोनिया गांधी को चुनौती मिली है? इसे चुनौती कहना गलत होगा। लेकिन यह भी सच है कि सोनिया गांधी को इससे पहले भी पार्टी में चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। पहली बार, उस समय जब उन्होंने 1997 में पार्टी के ही कुछ नेताओं के कहने पर कांग्रेस की सदस्यता ली। सीताराम केसरी पार्टी अध्यक्ष थे। 1997 में माधवराव सिंधिया, राजेश पायलट, नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह, ममता बनर्जी, जीके मूपनार, पी. चिदंबरम और जयंती नटराजन जैसे वरिष्ठ नेताओं ने केसरी के खिलाफ विद्रोह किया था। पार्टी कई गुटों में बंट गई थी। कहा जाने लगा था कि कोई गांधी परिवार का सदस्य ही इसे एकजुट रख सकता है। इसके लिए 1998 में सीताराम केसरी को उठाकर बाहर फेंका और फिर सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाया गया। शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने विदेशी मूल की सोनिया को अध्यक्ष बनाए जाने का विरोध किया तो पार्टी से उन्हें निकाल दिया गया। तीनों नेताओं ने राष्ट्रवादी कांग्रेस बनाई वर्ष 2000 में जब कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव हुए तो यूपी के दिग्गज नेता जितेंद्र प्रसाद ने सोनिया को चुनौती दी। उन्हें गद्दार तक कहा गया। लेकिन उन्हें 12,000 में से एक हजार वोट भी नहीं मिल सके। इस तरह सोनिया का पार्टी पर एकछत्र राज हो गया। सोनिया 1998 से 2017 तक लगातार 19 साल पार्टी की अध्यक्ष रहीं। यह पार्टी के इतिहास में अब तक का रिकॉर्ड है। 2019 में राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद से ही अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर सोिनया के पास ही पार्टी की जिम्मेदारी है।
आजादी के बाद से कांग्रेस में 18 अध्यक्ष रहे हैं। आजादी के बाद इन 73 सालों में से 38 साल नेहरू-गांधी परिवार का सदस्य ही पार्टी का अध्यक्ष रहा है। जबकि, गैर-गांधी अध्यक्ष के कार्यकाल में ज्यादातर समय गांधी परिवार का सदस्य प्रधानमंत्री रहा है। यह तो तय है कि कांग्रेस चकित नहीं करने वाली। अंतरिम अध्यक्ष पद पर सोनिया गांधी को बने रहने की अपील के साथ ही यह स्पष्ट संदेश दे दिया गया है कि अगला अध्यक्ष राहुल गांधी या प्रियंका गांधी में से ही कोई होगा। यदि गांधी परिवार के बाहर जाकर अध्यक्ष तलाशने की कोशिश की भी गई तो वह ज्यादा दिन तक टिक नहीं सकेगा, यह पार्टी का हालिया इतिहास बताता है। आजादी के बाद से गांधी परिवार के संरक्षण के बिना कोई अध्यक्ष टिक नहीं सका है।