फ्री पॉलिटिक्स और भाजपा मुफ्त में हार गई
स्पाइडर रॉबिन्सन की मशहूर रचना द फ्री लंच (The Free Lunch) में लिखा है कि इस दुनिया में ‘फ्री लंच” जैसी कोई चीज नहीं है. जनता को अहसास होता है कि उसे मुफ्त में कुछ मिल रहा है लेकिन, असल में ये एक माया-जाल होता है, जिसमें लोग खुशी-खुशी फंसते जाते हैं . भारतीय लोकतंत्र में आजकल इसी माया-जाल वाला मुफ्त काल चल रहा है, जिसमें मतदाता अपनी खुशी से, फंसता जा रहा है. नेता मुफ्त में कूपन बांट रहे हैं और जनता उन्हें लूटने में व्यस्त है. आज हम दिल्ली और बाकी राज्यों का उदाहरण देकर इसी मुफ्त काल का सरल विश्लेषण करेंगे और ये सवाल भी पूछेंगे कि क्या बीजेपी मुफ्त में हार गई?
सबसे पहले आप ये देखिए कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल सरकार ने जो मुफ्त वाले वायदे किए, उनमें कौन-कौन सी चीजें शामिल हैं. इस लिस्ट में हर महीने 20 हज़ार लीटर पानी, 200 यूनिट तक बिजली, महिलाओं के लिए बस यात्रा, छात्रों के लिए बस यात्रा, ग्रेजुएशन तक शिक्षा, इलाज की गारंटी, और हर इलाके में WiFi शामिल है. लेकिन ध्यान देने की बात ये है कि मुफ्त वाली लिस्ट तो बीजेपी ने भी जारी की थी . बीजेपी के घोषणापत्र में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की 12वीं कक्षा की छात्राओं के लिए मुफ्त साइकिल और कॉलेज जाने वाली छात्राओं को मुफ्त में स्कूटी देने का वादा किया गया था. इतना ही नहीं दिल्ली बीजेपी के अध्यक्ष मनोज तिवारी ने ये भी कहा था कि उनकी पार्टी जीतकर आई तो मुफ्त में बिजली और पानी वैसे ही मिलता रहेगा, जैसे अभी मिलता है.
वर्ष 2018 में मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए थे. वहां कांग्रेस ने किसानों के 2 लाख रुपये तक के लोन माफ करने का वादा किया था. 12वीं में 70 प्रतिशत अंक लाने वाले छात्रों को मुफ्त में लैपटॉप देने का वादा भी किया गया था. इस चुनाव में कांग्रेस की जीत हुई. वर्ष 2018 में राजस्थान में भी चुनाव हुए. कांग्रेस ने किसानों की कर्जमाफी के अलावा राज्य के सभी युवकों को हर महीने साढ़े तीन हज़ार रुपये बेरोज़गारी भत्ता देने का वादा किया था. कांग्रेस की वहां भी जीत हुई. इसी साल छत्तीसगढ़ में भी चुनाव हुए. कांग्रेस ने किसानों का कर्ज माफ करने का वादा किया. आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के परिवारों को मुफ्त में मकान और ज़मीन देने का भी वादा किया गया था . बाद में जो नतीजे आए, उसमें कांग्रेस विजयी रही.
ओडिशा में वर्ष 2019 में चुनाव हुए थे . वहां सत्ताधारी बीजू जनता दल (BJD ) ने सभी विश्वविद्यालयों में Free Wi-Fi का वादा किया. KG से PG तक छात्राओं की मुफ्त पढ़ाई और मुफ्त LED bulb बांटने का भी वादा किया गया था . ओडिशा के चुनाव में भी BJD जीत गई और लगातार पांचवीं बार नवीन पटनायक वहां के मुख्यमंत्री बने. पिछले साल दिसंबर में झारखंड में भी चुनाव हुए . वहां JMM यानी झारखंड मुक्ति मोर्चा ने महिलाओं को ‘चूल्हा खर्च योजना’ के तहत हर महीने 2 हजार रुपये देने का ऐलान किया था. इसके अलावा महिलाओं के लिए प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक मुफ्त में पढ़ाई का वादा भी किया गया था . झारखंड में भी JMM अपने साथी दलों के साथ सरकार बनाने में सफल रही.
यहां हमने जिन राज्यों का जिक्र किया, वहां जीतने के बाद, अलग-अलग सरकारें अपने वायदों पर अमल भी कर रही हैं . हालांकि कहीं-कहीं ये काम किस्तों में भी हो रहा है . खास तौर पर कर्ज माफी के वायदों में कई जगह एकमुश्त रकम नहीं दी गई है. हम ये नहीं कहते कि इन पार्टियों की जीत सिर्फ मुफ्त वाली लिस्ट की वजह से हुई . लेकिन, इतना जरूर कहा जा सकता है कि मुफ्त वाली लिस्ट का राजनीतिक फायदा हुआ. कोई भी सरकार जब मुफ्त में बांटने की राजनीति करती है तो इसके नतीजे क्या होते हैं? इस बात को समझाने के लिए हम आपको दिल्ली के बजट का उदाहरण देते हैं. 2019-20 में दिल्ली का बजट करीब 60 हजार करोड़ रुपये का था . इनमें से करीब 15 हज़ार 133 करोड़ रुपये शिक्षा के क्षेत्र में खर्च किए गए. 7 हजार 485 करोड़ रुपये स्वास्थ्य पर खर्च किए गए. इसी तरह करीब 6 हजार 500 करोड़ रुपये दिल्ली की सरकार ने कर्ज चुकाने में खर्च किए . जबकि 17 हजार 207 करोड़ रुपये सरकार के दूसरे खर्चों में चले गए. अब हम आपको दिल्ली सरकार के बचे हुए 8 हजार करोड़ रुपये का हिसाब समझाते हैं . बची हुई रकम में से 1720 करोड़ रुपये बिजली की सब्सिडी पर यानी मुफ्त बिजली पर खर्च हुए . इसी तरह करीब 1600 करोड़ रुपये अवैध तरीके से बनाई गई कॉलोनियों के विकास पर खर्च किए गए . जबकि 468 करोड़ रुपये मुफ्त पानी की योजना पर खर्च हुए . इसी तरह सरकार ने बसों में मुफ्त यात्रा की योजना के लिए भी 108 करोड़ रुपये खर्च कर दिए.
लेकिन, दिल्ली सरकार ने मुफ्त की योजनाओं के लिए जो बजट बनाया, उसका पैसा कहां से आया? दिल्ली के खर्च का कुल 71 प्रतिशत हिस्सा…यानी 42 हजार 500 करोड़ रुपये दिल्ली के लोगों पर लगाए गए टैक्स से आया . इसी तरह दिल्ली के खर्च का 11 प्रतिशत हिस्सा यानी 6 हज़ार 700 करोड़ रुपये केंद्र सरकार ने दिए. ध्यान दीजिए कि दिल्ली सरकार को अभी भी अपने 18 प्रतिशत खर्च की व्यवस्था करनी है . इसके लिए पैसा कहां से आएगा . इसके लिए उसे या तो कर्ज लेना होगा या फिर अपने पुराने फंड का इस्तेमाल करना होगा . कहने का मतलब ये है कि अगर सरकार कर्ज लेगी तो उसे चुकाने के लिए फिर जनता से ही यानि आप से ही टैक्स लेगी . कुल मिलाकर मुफ्त की योजनाओं का खर्च पब्लिक की जेब से ही निकाला जा रहा है.
हमने आपको समझाने के लिए इसी मुद्दे पर एक आर्थिक विशेषज्ञ से भी बात की. एक तरफ दिल्ली में मुफ्त बिजली और पानी दिया जा रहा है, दूसरी तरफ दिल्ली की सीवेज समस्या को हल करने के लिए सरकार ने सिर्फ 480 करोड़ रुपये ही दिए . इसी तरह सड़कों की मरम्मत के लिए भी सिर्फ 800 करोड़ रुपये का बजट दिया गया. हम सीवेज और सड़क की बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हर साल बरसात में दिल्ली की सड़कें तालाब बन जाती हैं . और इसके लिए सीवेज सिस्टम को ही दोषी ठहराया जाता है . सरकार दिल्ली की हो या किसी दूसरे राज्य की. अगर बिजली उत्पादन और बिजली के वितरण को सुधारा जाए. अगर साफ पानी, सीवेज, सड़क और यातायात के साधनों पर ध्यान दिया जाए तो शायद …बिजली, पानी और बसों को लेकर मुफ्त की राजनीति करने की ज़रूरत ही ना पड़े .
प्रेमचंद ने अपनी महान रचना गोदान में कहा है कि “कर्ज वो मेहमान है जो एक बार किसान की ज़िंदगी में आ जाए तो फिर जाने का नाम नहीं लेता.” भारत में आज भी आधी से ज्यादा आबादी रोज़गार के लिए खेती पर निर्भर है. लेकिन सरकारों ने किसानों को खुशहाल बनाने के बदले कर्जदार बना दिया है. लगभग सभी सरकारों में चुनाव से पहले किसानों का कर्ज माफ करने की होड़ लग जाती है . इससे सरकार के खजाने पर तो बोझ बढ़ता ही है, किसानों को भी कोई फायदा नहीं मिलता है क्योंकि वो कर्ज के चक्रव्यूह में हमेशा के लिए फंस जाते हैं.
वर्ष 2019-20 में राजस्थान सरकार ने किसानों को 18 हजार करोड़ रुपये का कर्ज माफ कर दिया . इसी तरह मध्य प्रदेश सरकार ने 36 हजार 500 करोड़ रुपये का और छत्तीसगढ़ सरकार ने 6 हजार 100 करोड़ रुपये का कर्ज माफ कर दिया. इसके पहले महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, पंजाब और कर्नाटक ने भी अपने किसानों का कर्ज माफ किया था . लेकिन ये सरकारें पैसा कहां से लाती हैं . किसानों का कर्ज चुकाने के लिए इन सरकारों को भी कर्ज लेना पड़ता है. इस बात की भी कोई गारंटी नहीं होती कि जिस किसान का कर्ज माफ हो गया, उसे अगले साल लोन की जरूरत नहीं पड़ती है. किसान को खेती के अलावा, शादी, मकान, बीमारी या दूसरी जरूरतों के लिए भी कर्ज लेना पड़ता है. लेकिन ऐसे किसान जब दुबारा बैंक में जाते हैं तो बैंक इन्हें लोन देने से मना कर देते हैं . और इस तरह से किसान कर्ज के चक्र से कभी निकल ही नहीं पाता है . कुल मिला कर हमारे देश में कर्ज तो माफ हो रहे हैं, लेकिन गरीबी साफ नहीं हो रही है .
राजनीति में बढ़ती इस मुफ्त वाली परंपरा पर खुद सुप्रीम कोर्ट भी सख्त टिप्पणी कर चुका है . पिछले वर्ष दिल्ली सरकार मेट्रो में महिलाओं को मुफ्त में सफर करने की सुविधा देने जा रही थी. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कहा था कि ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जाना चाहिए जिससे Delhi Metro Rail Corporation को नुकसान हो. कोर्ट ने ये भी कहा था कि अगर दिल्ली सरकार लोगों को मुफ्त यात्रा कराएगी तो इससे परेशानी होगी क्योंकि कुछ भी मुफ्त में मिलता है तो ये समस्या पैदा करता है. इससे पहले वर्ष 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मुफ्त की चीजें साफ-सुथरे चुनाव के लिए हानिकारक हैं.
मतदाताओं को मुफ्त में घरेलू सामान बांटने के तमिलनाडु सरकार के फैसले के खिलाफ वर्ष 2013 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल हुई थी. तब सुप्रीम कोर्ट ने इसपर रोक लगाने से मना कर दिया था और कहा था इस बारे में खुद चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों को दिशा-निर्देश बनाने चाहिए लेकिन राजनीतिक दल और आगे बढ़ गए और बिजली-पानी से लेकर किसानों के लोन तक पहुंच गए. ताज़ा फैशन मुफ्त बिजली और पानी का है. दिल्ली में शानदार सफलता के बाद अब पश्चिम बंगाल सरकार ने भी मुफ्त बिजली देने की घोषणा की है. अगले वर्ष पश्चिम बंगाल में चुनाव हैं. उसके पहले इसी वर्ष बिहार में भी चुनाव हैं. उम्मीद कम है कि कोई राजनीतिक दल मुफ्त की राजनीति से खुद को अलग कर पाएगा. ये भी संभव नहीं है कि जनता के बीच से मुफ्त वाली राजनीति के खिलाफ विरोध के स्वर उठें, और मुफ्त वाली सियासत से आज़ादी की मांग के लिए कोई धरना या प्रदर्शन पर बैठे.
समाजवादी विचारक डॉ. राम मनोहर लोहिया कहते थे कि अगर समाज में समता और संपन्नता हो तो सरकारों को लुभावने वादे करने की ज़रूरत नहीं होती है. हमारे देश का संविधान ये कहता है कि समाज के वंचित वर्ग के कल्याण के लिए सरकारों को उचित कदम उठाने चाहिए . लेकिन, संविधान उस ”मुफ्त मॉडल” की इजाज़त नहीं देता है, जो आज की राजनीति में किसी वायरस की तरह फैल रहा है. डॉ. लोहिया इस बात के हिमायती थे कि किसानों की मदद की जाए. वो चाहते थे कि 5 या 7 वर्षों के लिए ऐसी योजना बने, जिसके तहत सभी खेतों को सिंचाई का पानी मिले . लेकिन वो इस बात के विरोधी थे. अनंत काल तक मुफ्त वाली योजनाएं चलाई जाएं. कहने का मतलब ये है कि राहत को स्थायी समाधान नहीं समझ लेना चाहिए और जनता को मुफ्त वाली सुविधाएं देने के बदले इस काबिल बनाना चाहिए कि वो खुद अपने कर्ज चुकाए और खुद ही अपने बिजली और पानी के बिल भी भरे.