‘ संविधान के रक्षक ‘ केशवानंद भारती का निधन
संविधान के ‘मूल संरचना सिद्धांत’ का निर्धारण करने वाले केस के प्रमुख याचिकाकर्ता रहे केशवानंद भारती का रविवार सुबह केरल के कासरगोड जिले के एडानेर स्थित उनके आश्रम में निधन हो गया। 79 वर्षीय केशवानंद भारती केरल के कासरगोड़ में एडनीर मठ के प्रमुख थे। बता दें कि साल 1973 में उनके और केरल सरकार के बीच चले केस के फैसले ने उनकी पूरे भारत में अलग पहचान बनाई थी। केशवानंद को ‘केरल का शंकराचार्य’ भी कहा जाता है। वर्ष 1973 में ‘केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य’ का फैसला करीब 48 साल बाद भी प्रासंगिक है और दुनिया की कई अदालतों में कोट किया जाता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के 16 साल बाद बांग्लादेश की सुप्रीम कोर्ट ने ‘अनवर हुसैन चौधरी बनाम बांग्लादेश’ में मूल सरंचना सिद्धांत को भी मान्यता दी थी। ‘केशवनंद भारती बनाम केरल राज्य’ केस के ऐतिहासिक फैसले के अनुसार, ‘संविधान की प्रस्तावना के मूल ढांचे को बदला नहीं जा सकता।’
क्या था मामला जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया था ऐतिहासिक फैसला?
केरल की तत्कालीन वामपंथी सरकार ने भूमि सुधार मुहिम के तहत जमींदारों और मठों के पास मौजूद हजारों एकड़ की जमीन अधिगृहीत कर ली थी। सरकार का तर्क था कि वो जमीनें लेकर आर्थिक गैर-बराबरी कम करने की कोशिश कर रही है। इस सरकारी फैसले को तब युवा संत ने चुनौती दी थी। इसकी चपेट केशवानंद के एडनीर मठ की संपत्ति भी आ गई। मठ की सैकड़ों एकड़ की जमीन सरकार की हो चुकी थी। केशवानंद भारती ने केरल सरकार के इस फैसले को अदालत में चुनौती दी। केशवानंद ने कोर्ट में याचिका दखिल कर अनुच्छेद 26 का हवाला देते हुए दलील दी थी कि मठाशीध होने के नाते उन्हें अपनी धार्मिक संपत्ति को संभालने का हक है। इतना ही नहीं संत ने स्थानीय और केंद्र सरकार के कथित भूमि सुधार तरीकों को भी चुनौती दी थी। हालांकि केरल हाईकोर्ट में उनकी याचिका खारिज हो गई थी तब केशवनंद ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में 13 जजों की संवैधानिक बेंच ने केशवानंद भारती के पक्ष में फैसला दिया था।
क्या था सुप्रीम कोर्ट का फैसला?
केशवानंद की याचिका पर 23 मार्च 1973 को सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। 13 जजों की संवैधानिक बेंच ने 7:6 के बहुमत से फैसला सुनाया था जिसमें कहा गया था कि संसद संविधान में वहीं तक बदलाव कर सकती है, जहां वह संविधान के बुनियादी ढांचे पर असर न डालें। यह मामला आज भी मिसाल माना जाता है।
जस्टिस खन्ना ने अपने फैसले में ‘मूल ढांचा’ वाक्यांश का प्रयोग किया और कहा कि न्यायपालिका के पास उन संवैधानिक संशोधनों और कानूनों को अमान्य करार देने की शक्ति है जो इस सिद्धांत से मेल नहीं खाते। सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले में ‘मूल ढांचे’ की एक आउटलाइन भी पेश की थी। अदालत ने कहा था कि सेक्युलरिज्म और लोकतंत्र इसका हिस्सा हैं। पीठ ने आगे आने वाली पीठों के लिए इस मुद्दे को खुला रखा कि वे चाहें तो सिद्धांत में कुछ बातों को शामिल कर सकती हैं।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता भी मूल ढांचे का हिस्सा
भारती का केस तब के जाने-माने वकील नानी पालकीवाला ने लड़ा था। 13 जजों की बेंच ने 11 अलग-अलग फैसले दिए थे जिसमें से कुछ पर वह सहमत थे और कुछ पर असहमत। मगर ‘मूल ढांचे’ का सिद्धांत आगे चलकर कई अहम फैसलों की बुनियाद बना। कई संवैधानिक संशोधन अदालत में नहीं टिके। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी व्यवस्था दी कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है, इसलिए उससे छेड़छाड़ नहीं की जा सकती।