किसान आंदोलन के नाम पर अंतरराष्ट्रीय साजिश का खुलासा
नई दिल्ली: दिल्ली में फरवरी 2020 में हुए दंगों और हिंसा ने कई सवाल खडे कर दिए। एक सवाल यह भी खड़ा हुआ कि क्या दिल्ली के दंगे, प्रदर्शन के नाम पर हिंसा, अराजकता, पुलिस बल पर हमले, देश की संसद और न्यायपालिका के खिलाफ हुंकार और इससे भी आगे देश की एकता अंखडता को चुनौती देने वाले नारे संयोग नहीं प्रयोग थे ? प्रयोग की प्रयोगशाला बनी दिल्ली। साल भर पहले भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 3 फरवरी 2020 को पूर्वी दिल्ली के सीबीडी ग्राउंड में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए जो कहा था वो सच साबित हो रहा है। उस रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि ” सीलमपुर, जामिया या फिर शाहीन बाग़ में नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ हो रहे प्रदर्शन सिर्फ़ संयोग नहीं प्रयोग है। इसके पीछे राजनीति का एक ऐसा डिज़ाइन है जो राष्ट्र के सौहार्द को खंडित करने का इरादा रखता है यह सिर्फ़ अगर क़ानून का विरोध होता तो सरकार के आश्वसान के बाद ख़त्म हो जाना चाहिए था। आम आदमी पार्टी और कांग्रेस राजनीति का खेल खेल रहे हैं। संविधान और तिरंगे को सामने रखकर ज्ञान बांटा जा रहा है और असली साज़िश से ध्यान हटाया जा रहा है। प्रदर्शन के दौरान हुई हिंसा पर न्यायपालिका ने अपनी नाराज़गी जताई लेकिन हिंसा करने वाले लोग अदालतों की परवाह नहीं करते लेकिन बातें करते हैं संविधान की। सडके अवरूद्ध होने से दिल्ली से नोएडा आने जाने वालों को कितनी दिक़्क़त हो रही है दिल्ली वाले चुप हैं लेकिन ग़ुस्से में भी हैं इस मानसिकता को यहीं रोकना ज़रूरी है साज़िश रचने वालों की ताक़त बढ़ी तो कल किसी और सड़क और गली को रोका जाएगा।” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह एक एक शब्द और विचार अब करीब साल भर बाद सच साबित हुआ ।
जनवरी- फरवरी 2021 में जिस तरह से दिल्ली में किसानों के नाम पर जो आंदोलन किया गया उसको लेकर भी उसी तरह की तस्वीरें उभरी, हिंसा हुई और लाल किले की प्राचीर से देश की एकता अंखडता को चुनौती देने की कोशिश हुई जैसे नागरिकता संशोधन कानून के नाम पर हिंसा और विरोध के दौरान देखने को मिली। संसद से पारित नागरिकता संशोधन कानून के नाम पर विरोध करने वालों ने देश विरोधी भाषण दिए, देश की संसद और न्यायपालिका को लेकर तमाम तरह के सवाल उठाए वैसे ही विरोध का तरीका संसद से पारित कृषि सुधार कानूनों के विरोध के नाम पर देखने को मिला। यह भारत की संसद की संप्रभुता को चुनौती देने वाला उन लोगों का प्रयोग है जिन्हें देश की जनता ने जनादेश नहीं दिया। संसद से पारित कानूनों का विरोध करने वाले यह वो लोग हैं जो चुनाव लडे पर हार गए। इसलिए दिल्ली की सडकों को विरोध प्रदर्शन के नाम पर हिंसा की प्रयोगशाला बनाया गया। दिल्ली को हिंसा की प्रयोगशाला इसलिए भी बनाया गया क्योंकि दिल्ली देश की राजनीतिक राजधानी है। दिल्ली के दंगों और हिंसा का जरिया बने तत्वों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और कुछ विपक्षी नेताओं का जैसा समर्थन मिला उसकी भी शैली लगभग एक सी रही।
खेती.किसानी की आड़ में 26 नवंबर 2020 को उपद्रव का जो जमावड़ा राजधानी की दहलीज पर जमाया गया था उसका भांडा 26 जनवरी 2021 को फूट गया। लालकिले की प्राचीर पर तिरंगे के अपमान के बाद देशभर में उठी रोष की लहर में वे सारे तर्क बह गए जो कथित किसानों को आगे कर आंदोलनकारियों ने गढ़े थे। प्रधानमंत्री का विरोध, संसद का विरोध, न्यायपालिका का विरोध हर मुद्दे और मंच पर भारत से बैर विरोध वैसे ही देखने का मिला जैसा फरवरी 2020 के दिल्ली के दंगांं में देखने को मिला। इस घटना ने सिद्ध कर दिया कि जिसे लोकतांत्रिक आंदोलन का नाम दिया गया वास्तव में वह ढकोसला भर था। कुछ लोगों को इस पर आपत्ति हो सकती है किन्तु सत्य वही है क्योंकि लोकतंत्र की परिधि में आंदोलन सिर्फ शब्द या ठप्पे से बड़ी चीज है।
दिल्ली दंगों की पृष्ठभूमि रचता शाहीनबाग का सड़क धरना या अन्नदाता के नाम पर अराजक उपद्रव इस तरह के राजनीतिक प्रयोगों को आंदोलन कतई नहीं कहा जा सकता है।कारण लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी आंदोलन के लिए कुछ कसौटियां कुछ मापदंड होते हैं। मसलन आंदोलन की पहली आवश्यकता है मुद्दा। लेकिन बात चाहे कथित किसान आंदोलन की हो या नागरिकता संशोधन कानून के विरोध की , कोई मुदृ नहीं बस एक ही बात कानून वापस लो। किसी आंदोलन की दूसरी जरूरत है जनाधार। जनाधार के नाम पर देश की जनता ने जिन्हें जनादेश नहीं दिया वो जनता के नाम पर एक वर्ग को लेकर सडक पर ताकत दिखाने लगे। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध के नाम पर देश के मुस्लिम समाज को गुमराह कर हिंसा के लिए उकसाया गया तो कृषि कानून के नाम पर सिखों को भडकाया गया। एक खास जाति को उकसाने का प्रयास किया गया। यानी जनाधार के नाम पर धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिकता को जरिया बनाया गया। सांप्रदायिकता का यह हिंसक खेल उन्हीं राजनीतिक दलों ने खेला जो धर्मनिरप्रेक्षता का सबसे ज्यादा ढोल बजाते हैं। किसी आंदोलन का तीसरी महत्वपूर्ण पहलू उसका नेतृत्व होता है लेकिन नागरकिता संशोधन कानून के विरोध से लेकर कृषि कानूनों के विरोध करने वालों के कुछ चहरे तो बदले लेकिन पीछे से हिंसा का खेल खेलने वाले चेहरे एक ही दल के थे ण्क जैसे थे एक विचार के थे। इसलिए नागरिकता देने वाले कानून को लोगों की नागरिकता छीनने वाले कदम की तरह प्रचारित कर दिल्ली में दंगा भड़काने की पटकथा लिखी गई थी। लोकतांत्रिक व्यवस्था में आंदोलन की सबसे बड़ी कसौटी है उसकी प्रक्रियाओं का पालन। असहमति के लिए सहमत होना, गुंजाइश रखना, यह लोकतंत्र का आधारभूत लक्षण है। किन्तु जब इसी व्यवस्था को सीढ़ी बनाकर सिर्फ अपनी बात कहने और बाकी सबको हथियार और ताकत के बूते कुचलने वाले तत्व लोकतंत्र के लालकिले जैसे प्रतीकों पर चढ़ आएं तो उपद्रव को आंदोलन कहने की और उत्पातियों के साथ नरमी बरतने की कोई गुंजाइश नहीं बचती।
आंदोलन के नाम पर देश विरोधी यह षडयंत्र तब और भी खतरनाक हो जाता है जब ऐसे आंदोलनों के तार विदेशों से जुडे होते हैं और फंडिग एक सा रूप दिखाई देने लगता हैं। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध का चेहरा बने कुछ लोगों ने असम को भारत से अलग करने की अपनी मंशा प्रकट की तो किसान आंदोलन में खालिस्तानियों ने अपनी नापाक इरादे दिखाते हुए पाकिस्तानी के खालिस्तानी एजेंडा को लाल किले पर दिखाया तो किसान आंदोलन के रूप से पाकिस्तान सहित भारत विरोधी ताकतों का एक गुट अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साथ खडा नजर आया। इसलिए भारत विरोध की प्रयोगशाला बनी दिल्ली में हिंसा दंगे संयोग नहीं प्रयोग थे। आगे जब किसानों के नाम पर दिल्ली में हुई हिंसा की जांच होगी तो दिल्ली के दंगों की तरह ही भारत विरोध की तस्वीर सामने आएगी।
किसान आंदोलन की आड़ में भारत को बदनाम करने की विदेशी साजिश का खुलासा हुआ है. दिल्ली पुलिस ने किसान आंदोलन और ट्रैक्टर परेड में हुई हिंसा के पीछे पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन का हाथ बताया है. ये फाउंडेशन खालिस्तान समर्थक है. दरअसल, खुद को पर्यावरण कार्यकर्ता बताने वाली ग्रेटा थनबर्ग ने गलती से दूसरी बार उस अंतरराष्ट्रीय साजिश का खुलासा कर दिया, जो भारत को तोड़ने के लिए महीनों से चल रही है. ग्रेटा ने 2 जनवरी को किसान आंदोलन के समर्थन में एक ट्वीट किया था. इस ट्वीट में उन्होंने कहा था, ‘हम भारत में जारी किसान आंदोलन के साथ एकजुटता के साथ खड़े हैं.’इस ट्वीट के बाद ग्रेटा थनबर्ग ने एक और ट्वीट किया और गलती से उन्होंने सोशल मीडिया पर एक डॉक्यूमेंट शेयर कर दिया. इस डॉक्यूमेंट में किसान आंदोलन के नाम पर 26 जनवरी की हिंसा से लेकर 6 फरवरी को होने चक्काजाम के नाम पर अंतरराष्ट्रीय साजिश का पूरा ब्योरा था. ये ग्रेटा की पहली गलती थी, जिसका कुछ ही देर में ग्रेटा को अहसास हुआ और उन्होंने किसान आंदोलन पर टूलकिट वाला डॉक्यूमेंट डिलीट कर दिया. लेकिन इसके बाद ग्रेटा ने फिर एक गलती की. उन्होंने एक और ट्वीट किया और इस ट्वीट ने किसान आंदोलन के नाम पर बहुत
बड़ी अंतरराष्ट्रीय साजिश का खुलासा कर दिया.
ग्रेटा ने ट्वीट करते हुए लिखा, ‘अगर आप भारत के लोगों की मदद करना चाहते हैं, तो ये अपडेटेड टूलकिट है. पिछला टूलकिट हटा दिया गया. क्योंकि वो पुराना टूलकिट था. इस ट्वीट में #StandWithFarmers और #FarmersProtest के साथ एक लिंक और शेयर किया था, और ये लिंक ही किसान आंदोलन के नाम पर सबसे बड़ी अंतरराष्ट्रीय साजिश की तह में ले गया. ग्रेटा थनबर्ग ने सोशल मीडिया पर जो लिंक शेयर किया है, उसपर क्लिक करने से एक पेज खुला. उस पेज में किसान आंदोलन के बारे में कुछ बातों के अलावा #AskIndiaWhy भी दिया गया था. #AskIndiaWhy को कॉपी करने के बाद हमने इसके बारे में Google पर जानकारी ढूंढनी शुरू की. तो हमें AskIndiaWhy नाम से एक वेबसाइट मिली. #AskIndiaWhy की वेबसाइट के मुख्य पेज पर 26 जनवरी को दिल्ली हिंसा के समर्थन में कुछ बातें लिखी हुई थीं. वेबसाइट पर एक संगठन पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन का नाम लिखा था. पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन के बारे में Google पर जब हमने जानकारी जुटाने की कोशिश की, तो हमें इस नाम से एक वेबसाइट और वेबसाइट पर एक लिंक मिला. ये लिंक ही भारत के खिलाफ सबसे बडी साजिश का दस्तावेज है. इस लिंक में सुबूत है कि 26 जनवरी को हुई दिल्ली हिंसा भारत के खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय प्लान था और ये लिंक सुबूत है कि किसान आंदोलन के नाम पर भारत को तोड़ने की बड़ी तैयारी हो रही है.
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